भारतीय राजनीति में उन्नीस सौ अस्सी का साल विचार परक राजनीति के इंटेंसिव केयर यूनिट में जाने का साल है. छत्तीस बरस हो गए. तब से हर चुनाव में सबसे पुराने इस लोकतंत्र की नींव से कुछ ईंटें खिसक जाती हैं. बुनियाद तनिक और कमज़ोर हो जाती है. हालाँकि इससे पहले उन्नीस सौ सड़सठ और उनीस सौ सतहत्तर में इस देश ने संक्षिप्त से अराजक दौर देखे थे, लेकिन तब मोहभंग का सिलसिला लंबा नहीं चला था.
तत्कालीन राजनीति में आज़ादी के आंदोलन से निकले कुछ रौशनी पुंज मौजूद थे. वे जुगनू की तरह मंद और झीना प्रकाश दे रहे थे मगर अपने दायरे में फिर भी उपयोगी थे. इसलिए जब नींव से इन ईंटों का खिसकना शुरू हुआ तो भी बचे खुचे विचारशील लोग आशा का टिमटिमाता दीपक लेकर उन जुगनुओं से सूरज की रौशनी चाहते रहे.
उस भारत में इस भरोसे के कुछ कारण थे – कांग्रेस में नेहरू युग के विचार आधारित विकास अवशेष, दीनदयाल उपाध्याय, श्यामाप्रसाद मुखर्जी के दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद का संकल्प, राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण का समाजवादी सपना और श्रीपाद अमृत डांगे तथा ज्योतिबसु का ठोस वाम आधार. इन सबने मिलकर देश के दिए में एक लौ जलाकर रखी थी. यह लौ इस बात की गारन्टी थी कि विचारों का समंदर अभी भी हिंदुस्तान की लोकतांत्रिक गंगा में बहने के लिए तैयार है. फिर क्या हुआ? अचानक हमारे राजनेता सत्ता को सेवा के स्थान पर स्वयंसेवा का माध्यम कैसे बना बैठे?
क्या यह सब यक़ ब यक़ हो गया ?

FIle photo of Shripad Amrit Dange and Jyoti Basu Image – Wikipedia/CC BY-SA 3.0 de, Image – Wikipedia/CC BY 3.0
शायद नहीं. चुनाव दर चुनाव आज़ाद हिंदुस्तान की मिट्टी अपने शिल्पियों को आँखें दिखाती रही. संकल्प, सोच और सपने दम तोड़ते रहे. जिस देश ने सत्तर के दशक में हरित क्रान्ति के बल पर अनाज उत्पादन में आत्म निर्भरता दिखाई, पोखरण में परमाणु विस्फ़ोट के ज़रिए दुनिया को अपने इरादे जताए, गुटनिरपेक्ष आंदोलन की अगुआई की और गरीबी हटाओ के नारे के साथ प्रजातंत्र को प्राणवायु दी, वही देश साँवले अंगरेजों की नौकरशाही बर्दाश्त कर रहा था, चुनाव में परदे के पीछे चंदा ले रहा था, काले धन के नाले को बहने के लिए रास्ता भी दे रहा था और रिश्वतख़ोरी को राष्ट्रीय पहचान बना रहा था. इन्ही दिनों ग़ैर कांग्रेसवाद का नारे ने जन मानस का ध्यान खींचा और उन्नीस सौ सतहत्तर के चुनाव में पहली बार भारतीय मतदाता ने कांग्रेस के विकल्प को रास्ता दिया.
अफ़सोस!
ढाई साल में ही लाख की बंधी मुठ्ठी खुल गई और ख़ाक निकली. तपे तपाए नेताओं ने विचारों, सिद्धान्तों और आदर्शों से तो समझौता कर लिया लेकिन अपने अहं से नहीं. नतीजा क्या निकला. ग़ैर कांग्रेसवाद के नारे की हवा निकल गई. बकौल राजेन्द्रमाथुर ग़ैर कांग्रेसवाद के बैंक में जब पहला ग्राहक चेक लेकर गया तो उसने पाया कि बैंक की गुल्लक ख़ाली थी. न कोई नैतिक पूँजी थी और न विचारों का कोई बैलेंस.
सवाल यह है कि क्या कोई पर्वतारोही आज तक सोते सोते एवरेस्ट चढ़ा है? क्या कोई कोलंबस समाधि लगाकर अटलांटिक पार हुआ है? क्या शेर के मुँह में कोई खरगोश अनायास टहलते हुए चला गया है? कैसे मानें कि भारत ऊँघते हुए रामराज्य के दरवाज़े तक पहुँच जाएगा ? सोच विचार से अगर हमने सचमुच तलाक़ ले लिया तो फिर क़ानून के बजाए सनक, सिद्धान्त के बजाए सिफ़ारिश और जनहित के बजाए दादागीरी से हमारा राज चलेगा. मौलिक सोच विचार आज सबसे मुश्किल और मँहगी चीज़ है. इसीलिए विचार शून्यता के समर्थक भी अब दिखाई देने लगे हैं.
उन्नीस सौ नवासी – नब्बे में एक बार फिर कांग्रेस से ही निकली उप धारा ग़ैर कांग्रेसवाद के नए नारे के साथ अवतरित हुई. इस बार तो यह नारा कुछ ज़्यादा ही बारीक, महीन तथा सूक्ष्म जीवन लेकर आया. इस अवधि में राजनीति विचार के आधार पर काम का दावा करती दिखाई दी. बाद में यह भी प्रपंच निकला. देश कई खंडों और उप खंडों में बँट गया. वैचारिक अखण्डता के जिस क़िले की रक्षा आज़ादी के बाद का कमज़ोर और क़रीब क़रीब अनपढ़ हिंदुस्तान करता आया था,उसे कम्प्युटर युग में दाख़िल हो रहे कमोबेश साक्षर देश ने ढहा दिया. ग़ैर कांग्रेसवाद एक बार फिर फुस्स हो गया. विचार का संकट और विकराल.
इसी दशक के उत्तरार्ध में राजनीतिक अस्थिरता के चलते विचारों की चादर तार तार हो गई. दरअसल यही वो काल है, जब निर्वाचित सरकार बनाए रखने के लिए मतदाता ने भी अनिच्छापूर्वक विचारों की होली जलाने को मंज़ूरी दे दी. उन दिनों की स्मृति यदि बिसरी नहीं है तो याद करिए. लोग नेताओं से कहने लगे थे – कुछ भी करो मगर पाँच साल तो टिके रहो. क़रीब क़रीब हर साल होने वाले चुनावों ने मतदाताओं को ग़ुस्से से भर दिया था. इसके बाद से एक अंधकार युग हम देख रहे हैं. प्रजातंत्र से विचार और विचारधारा निर्वासित तथा हाशिए पर है. एपेन्डिक्स की तरह वह एक फ़ालतू अंग है, जिसका बना रहना देश की देह के लिए घातक सा लगने लगा है. एक क़िस्म का राष्ट्रीय अंधत्व हम पर तारी है. विडंबना यह है कि किसी ने हमारी आँखें नहीं फोड़ीं हैं. अब या तो विचार को हम निर्वासन जंगल में अपनी मौत मरने के लिए छोड़ दें और इस अंधत्व के साथ रहने की आदत बना लें या फिर उस समय तक विचार के इस राजकुमार की रक्षा किसी पन्ना धाय की तरह करें,जब तक कि उसके फिर सत्तारूढ़ होने के हालात नहीं बन जाते. लेकिन तब तक क्या बहुत देर नही हो चुकी होगी? क्या विचार को निर्वासन के जंगल में मरने के लिए छोड़ने से उपजे जोख़िम को हम उठाने के लिए तैयार हैं?
वक़्त इस समय एक गंभीर चेतावनी दे रहा है कि विचारसंकट से ग्रस्त देश परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहे. आख़िर कोई ज़िम्मेदार लोकतंत्र वैचारिक रीढ़ के बिना कितने दिन दुनिया की रेस में अपने को बनाए रख सकता है? दो हज़ार सत्रह का लोकतंत्र अब गँवार राजनेताओं को सन्तुष्ट करने या उनके हितों की रक्षा करने वाला उपकरण नहीं रहा है. यह एक ऐसे जागरूक और सतर्क समाज की माँग करता है, जिसमें चुनाव का मतलब जाति, धर्म, धन और तिकड़मों को कोई जगह न दी जाए.
(लेखक के ये अपने विचार हैं)