तो जैसा कि तय हुआ था आज जायज़ा लेंगे पूर्व और उत्तर -पूर्व भारत के क्लस्टर्स का। शुरू करते हैं पश्चिम बंगाल से, यहाँ अभी 29 क्लस्टर्स चल रहे हैं। कपडा मंत्रालय के आकड़ों के मुताबिक़ इनमें 10,124 कारीगर तथा 642 सेल्फ हेल्प ग्रुप्स काम कर रहे हैं। इन क्लस्टर्स में मुख्यतः
-ताड़ से बने सूटकेस, बक्से, बैग, बास्केट, स्क्रीन, चिक, मैट, ग्लास होल्डर, vases, टोपी, हाथ के पंखे, स्क्वायर मैट और trinket बक्से
– टेराकोटा से बने मिट्टी की वस्तुएं जैसे लैंप, घड़े, फूल की माला, बर्तन, संगीत वाद्ययंत्र, मोमबत्ती स्टैंड
– चमड़ा उत्पाद, हाथ की कढ़ाई – कांथा और सिल्क के उत्पाद
– केन और बम्बू और घास के पत्ते से बने उत्पाद
– हैंड प्रिंट का काम – चंदेरी स्टोल और दुपट्टा, मंगलगिरी सलवार सूट और साड़ी, माहेश्वरी सलवार सूट और साड़ी, तुषार सलवार सूट और साड़ी, जॉर्जेट साड़ी, शिफॉन साड़ी, खादी कपास और खादी सिल्क में मुद्रित कपड़े, वॉयल और चादर में मुद्रित कॉटन
– जरी: -धातु के धागों से की गई कढ़ाई को कलाबट्टू कहा जाता है जो ज़री का आधार होता है
– गुड़िया और खिलोने
ऐसे क्लस्टर्स क्षेत्रीय स्तर पर कैसे रोजगार के साथ साथ महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा देने के साथ साथ पलायन को रोकते हैं – पश्चिम मेदिनीपुर जिले के नरहरिपुर क्षेत्र में बसा डेबरा क्लस्टर इसका अच्छा उदाहरण है। आज ये अपने उत्कृष्ट जूट हैंडलूम उत्पादों के लिए जाना जाता है। ये क्षेत्र सीमान्त किसान और खेतिहर मजदूरों का निवास है, कभी यहां रुपये पैसे का संकट हर घर में था। इसके चलते बड़े पैमाने पर रोजी-रोटी के लिए दूसरे राज्यों में पलायन होता था। फिर 2007 में यहाँ नेशनल जूट बोर्ड एक क्लस्टर बनाया। शिप्रा इस दौर में यहाँ बने स्वयं सहायता समूह की सदस्य हैं। ये समूह Jute Product no.1 SD के नाम से जाना जाता है। शिप्रा के मुताबिक़ पहले बुरे हालातों के चलते ऐसा इस क्षेत्र में कोई काम नहीं था जो घर चलाने में उन जैसी गरीब महिलाओं की मदद करता। तो 2007 में ही NABARD से ट्रेनिंग लेकर इस 10 सदस्यीय समूह ने जूट का सामान बनाने काम शुरू कर दिया। 2009 में नेशनल जूट बोर्ड ने इन्हें विशेष प्रशिक्षण दे अगले स्तर के लिए तैयार किया। आज ये क्लस्टर अपने बेहतरीन जूट मैट यानी चटाई के लिए जाना जाता है। यहां प्रत्येक सदस्य दिन भर में 10 -15 चटाइयां बना डालती है और औसतन 400 रुपये रोज़ कमाती है। हाँ एक बात और, ये क्षेत्र कंगशाबाती नदी की तराई में बसा है और मानसून के दिनों में कच्चा माल लाने में दिक्कत होती थी। इसका भी हल निकाला गया, एक स्थानीय सामुदायिक संस्था ने अपने यहां कच्चे माल का स्टोर बनाने की अनुमति दी जिससे उत्पादन बारोमासी चलता रहे और नकदी प्रवाह बना रहे। इसी दृढ़ संकल्प और उद्यमशीलता का नतीजा है कि आज यहाँ बनी चटाइयां न सिर्फ स्थानीय बाज़ारों में बड़ी मात्रा में बिकती हैं बल्कि केंद्रीय कॉटेज एम्पोरियम में भी इनकी बड़ी मांग है। नाबार्ड इस समूह के काम की लगातार निगरानी करता है और ज़रुरत पड़ने पर ज़रूरी सहायता देता हैं। तो 2016 तक डेबरा क्लस्टर में ऐसे समूहों की संख्या लगभग 1300 थी जिनमें 95 % महिला समूह थे। इनमें फल और सब्ज़ी प्रसंस्करण, फूलों की खेती, जूट उत्पाद , टेर्राकोटा का काम भी होता है। आज डेबरा क्लस्टर की साक्षरता दर काफी अच्छी है. यहाँ 244 स्कूल हैं जिनमें 206 प्राइमरी स्कूल हैं। इलाके में एक ग्रामीण अस्पताल और 3 प्राइमरी हेल्थ केयर सेंटर्स हैं। यहाँ बिजली और ट्रांसपोर्ट जैसी मूलभूत सुविद्याएँ भी बाकी क्षेत्रों से बेहतर हैं। डेबरा के विकास की यात्रा की कहानी आज यहाँ चल रहे 11 commericial bank और 143 को-आपरेटिव सोसाइटीज मजबूती से दर्ज़ करते हैं। आज 13 बरस के कठिन श्रम और नेशनल जूट बोर्ड और NABARD जैसी संस्थाओं की पहल के चलते शिप्रा जैसी तमाम महिलाओं का जीवन आज बेहतरी के लिए बदल चुका है।
ऐसे की हुगली नदी के किनारे बसा कोलकाता का कुमारटोली इलाका है जो creative cluster का अच्छा उदाहरण है। यहाँ बसे 528 परिवार पिछले 250 से दुर्गापूजा शिल्प से जुड़े हुए हैं। यहाँ बनी मूर्तियां देश -विदेश में जाती हैं। त्योहारों के दौरान जब मूर्तियों की मांग बढ़ जाती है तो इसे पूरा करने कई शहरों से कारीगर आते हैं। पिछले कुछ बरसों से फाइन आर्ट्स कॉलेज के ग्रेजुएट्स भी यहां आने लगे है जिससे यहाँ रचनात्मक प्रयोगों में विस्तार हुआ है। लेकिन वक़्त के साथ साथ यहाँ कच्चे माल और स्टोरेज की समस्या सामने आयी है। इसे दूर करने के लिए Kolkata Metropolitan Development Authority (KMDA) ने JnNURM जैसी योजनाओं की मदद ली है।
इसी तरह कोलकाता की कॉलेज स्ट्रीट Literary Cluster का प्रतीक है। इसे बांगला में बोईपाड़ा कहा जाता है यानी किताबों का घर। ये इलाका बैठक खाना के करीब है जो अपने प्रिंटिंग उद्योग के लिए मशहूर है। आस पास मौजूद प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों से इसे बाज़ार और धन दोनों मिलता। इस क्लस्टर की शुरुआत औपनिवेशिक काल में हुई जब कलकत्ता ब्रिटिश भारत की राजधानी हुआ करती थी। समय के साथ साथ पुस्तक-विक्रेताओं, प्रकाशकों, वितरकों, लेखकों और पाठकों के लिए ये ज्ञान-संस्कृति का केंद्र बन गयी।
बात आगे बढ़ाते हैं – इसी बरस भारत सरकार ने पूर्वोदय योजना का ऐलान किया है इसका लक्ष्य ओडिशा, झारखंड, छत्तीसगढ़, बंगाल और आंध्र प्रदेश के कुछ हिस्सों में चल रहे इस्पात उद्योगों को केंद्र में रख कर स्टील क्लस्टर बनाना है। इस क्लस्टर में 70 अरब डॉलर तक के निवेश की सम्भावना आंकी गयी है। इस क्लस्टर के मार्फ़त पूर्व क्षेत्र में नई क्षमता का निर्माण करना और सहयोगी उद्योगों का प्रसार करना शामिल है। हालांकि देश में 2019 -20 के दौरान लगभग 1 करोड़ टन स्टील की खपत का अनुमान था पर विशेषज्ञों के मुताबिक़ कोरोना महामारी के चलते ये आगे खिसक सकता है। फिलहाल पूर्वी भारत में विशाल संभावनाओं के चलते ये एकीकृत स्टील हब तीन मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करेगा
– ग्रीनफील्ड स्टील प्लांट लगाने की प्रक्रिया को आसान बनाना, क्षमता में वृद्धि करना
– एकीकृत संयंत्रों और बाज़ार के पास स्टील क्लस्टर विकसित करना
– रसद प्रवाह और बुनियादी ढांचे को सुचारु बनाना
इस्पात और पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान के मुताबिक़ – पूर्वी भारत अवसरों की भूमि है। प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न होने के बावजूद यह क्षेत्र देश के दुसरे हिस्सों की तुलना में पीछे रहा। उनके मुताबिक़ पूर्वोदय कार्यक्रम इस स्टील क्लस्टर के माध्यम से इस क्षेत्र के विकास में नया अध्याय लिखेगा। सरकार इस रास्ते पर कदम बढ़ा चुकी है। बोकारो (झारखण्ड ) और कलिंगनगर (ओडिशा) में क्लस्टर विकास का काम शुरू हो चूका है। और बंगाल की आसनसोल-दुर्गापुर बेल्ट जहां दो बड़े एकीकृत स्टील प्लांट मौजूद हैं, इसमें जल्द काम शुरू हो जायेगा।
जाते जाते – अगले लेख में देश के उत्तर -पूर्व क्षेत्र को पोसते क्लस्टर्स की चर्चा करेंगे।