दिल्ली के आसमान पर इक्का –दुक्का पतंगें अब भी उड़ रही थीं, नीचे बहादुर शाह ज़फ़र रोड पर जन सैलाब उमड़ा पड़ा था अपने नेता भारत रत्न और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की अंतिम यात्रा में दर्शन करने के लिए। आज़ाद हिन्दुस्तान के इतिहास में तो पहले कभी ऐसा नहीं हुआ कि कोई प्रधानमंत्री अपने राजनीतिक गुरु और नेता की अंतिम यात्रा में पांच किलोमीटर पैदल चलता रहा हो, नि:शब्द और भाव शून्य होकर। सुरक्षा के नजरिए से यह खतरनाक भी था और मौजूदा राजनीति रंग ढंग में तो नामुमकिन सा,लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने नेता अटल जी को श्रद्धांजलि देने के लिए उनकी अंतिम यात्रा में तोपगाड़ी के पीछे चलते रहे। उनके साथ बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह, कैबिनेट मंत्री और बीजेपी शासित राज्यों के मुख्यमंत्री भी थे। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद, पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और उप राष्ट्रपति वेंकैया नायडु भी श्रद्धांजलि देने के लिए मौजूद रहे। प्रधानमंत्री मोदी की मौजूदगी यह औपचारिकता भर नहीं थी, क्योंकि पिछले चौबीस घंटों में मोदी दो बार अस्पताल में वाजपेयी का हाल पूछने गए, फिर उनके निधन के बाद भी गए, देर रात तक उनके आवास पर रहे और फिर सवेरे उनके शव के साथ बीजेपी मुख्यालय में भी।
पंतगों का ज़िक्र इसलिए याद आया कि उस दिन भी पंतगें उड़ रही थी, लेकिन वो पाकिस्तान का आसमान था, लाहौर के आसमान पर। 20 फरवरी,1999। भारत-पाक सीमा पर स्वागत के बाद जब हेलीकॉप्टर प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को लेकर उड़ा तो आसमान में रंग बिरंगी पतंगे उड़ रही थीं, शायद दोनों मुल्कों के बीच दोस्ती की नई ऊंचाइयों को छूने के लिए।
अटारी भारत पाक सीमा का आखिरी छोर – वाघा बार्डर। जैसे ही वाघा बार्डर पर गेट खुले, टीवी चैनलों पर ख़बर दौड़ पड़ी। वाजपेयी और नवाज़ शरीफ ने दोस्ती के दरवाज़े खोल कर इतिहास बना दिया। वाजपेयी दोनों मुल्कों में अमन और दोस्ती के लिए बस लेकर पहुंच गए थे। ऐतिहासिक लाहौर यात्रा । मुल्ला नसीरुद्दीन की तरह संत स्वभाव, किसी की इंतज़ार नहीं ,खुद ही पहल करने के लिए आगे बढ़ गए।
वाजपेयी को सिर्फ़ एक प्रधानमंत्री के तौर पर याद नहीं किया जा सकता और सिर्फ़ बीजेपी के नेता के तौर पर याद करना तो नाइंसाफ़ी जैसा होगा । वाजपेयी स्टेट्समैन थे। उनकी खासियत थी कि वे जिससे मिलते, जहां जाते उनके दिल में उतर जाते। उनकी मौहब्बत, उनके चेहरे की मुस्कराहट, उनकी बोलती चमकती आंखें, उनकी राजनीति, उनकी दोस्ती किसी भी सीमा को पार कर दिल में उतर जाती, घुल जाती शर्बत में शक्कर की तरह और एक नई मिठास देती, एक नया स्वाद देती । शायद इसीलिए उन्हें अजातशत्रु कहा जाता रहा।
उनकी मुस्कुराहट, उनकी दोस्ती उन्हें कमज़ोर नहीं बनाती थी, उनके इरादे उनके नाम की तरह अटल थे, उन्हें झुकाया जाना नामुमकिन था। वाजपेयी ही ऐसा कर सकते हैं कि वे दुनिया की परवाह किए बिना देश को ताकतवर बनाने के लिए प्रधानमंत्री बनने के कुछ हफ्तों में परमाणु परीक्षण करने की हिम्मत दिखाते हैं । दुनिया भर की तमाम पाबंदियों की चिंता नहीं करके उनका डट कर सामना करते हैं और पाबंदियों के बाद भी कहते हैं कि भारत-अमेरिका Natural Allies हैं, जो लोग इसे मज़ाक समझते हैं, उन्हें पता चलता है कि उसी अमेरिका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन कुछ वक्त बाद भारत पहुंच जाते हैं वाजपेयी से मिलने। परमाणु परीक्षण के बाद भी वाजपेयी ही लाहौर के लिए बस लेकर जा सकते हैं, दोस्ती का हाथ बढ़ा सकते हैं ।
उऩके सम्मान में लाहौर के ऐतिहासिक किले में पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ कविता पढ़ते हैं –
भारत–पाकिस्तान पड़ोसी, साथ–साथ रहना है,
प्यार करें या वार करें, दोनों को ही सहना है,
तीन बार लड़ चुके लड़ाई, कितना मंहगा सौदा।
रूसी बम हो या अमेरिकी, ख़ून एक बहना है।
जो हम पर गुज़री, बच्चों के संग न होने देंगे।
जंग न होने देंगें।
यह कविता थी भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की । लाहौर के किले में वाजपेयी के सम्मान भोज में वाजपेयी ने कविता उस वक्त पढ़ी जब वे दोनों मुल्कों में अमन और दोस्त के पैगाम के साथ बस लेकर लाहौर पहुंचे थे।
लाहौर के उस ऐतिहासिक किले में हेलीकॉप्टर उतरा जहां मुगल शासक शाहजहां पैदा हुए थे और अकबर ने दस से भी ज़्यादा साल गुज़ारे थे। किले के शानदार समारोह और राजकीय भोज में प्रधानमंत्री वाजपेयी ने ग्यारहवीं सदी के मशहूर शायर मसूद बिन साद बिन सलमान के शेर को याद किया –
शुद दार गम लोहुर खानम यादब।
यारब कि दार आरजू–ए-अनाम यारब।
वाजपेयी ने कहा कि भारत की खोज के लिए अमेरिका की तरह कोलम्बस की ज़रुरत नहीं हैं। वाजपेयी बोले,“मुझे इस बात की खुशी थी कि मैं इक्कीस साल के बाद फिर से अमन और दोस्ती का पैगाम लेकर आपके बीच आ रहा हूं, लेकिन अफसोस इसलिए था कि हमने इतना वक्त रंजिश और कडुवाहट में बिता दिया।”
और जब इसके बाद कारगिल युद्ध हो जाता है तो भारत वाजपेयी के नेतृत्व में ही पाकिस्तान को करारा जवाब भी देता है। वाजपेयी ही नेता के तौर पर ऐसा फ़ैसला करने की हिम्मत दिखा सकते हैं कि कारगिल के लिए ज़िम्मेदार जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ को आगरा में बातचीत के लिए बुलाते हैं । विदेश मंत्रालय के लोग इस बैठक के लिए गोवा की जगह का सुझाव देते हैं लेकिन वाजपेयी दोस्ती और मौहब्बत की निशानी आगरा को शिखर सम्मेलन के लिए चुनते हैं ।
उस रात जब आगरा में बातचीत फेल हो जाती है तो रात 11 बजे मुशर्रफ वाजपेयी से मुलाकात करते हैं । मुशर्रफ कहते हैं कि इससे हम दोनों को ही अपमान झेलना पड़ा है। लगता है कि हम दोनों से ऊपर कोई इस बातचीत को अपने तरीके से चलाने की कोशिश कर रहा है। वाजपेयी चुप रहे। मुशर्रफ ने वाजपेयी का शुक्रिया किया और तेज़ी से कमरे से निकल गये। मुशर्रफ ने लिखा,“देयर इज ए मैन, देयर इज ए मोमेंट, व्हेन मैन एंड मोमेंट मीट हिस्ट्री इज़ मेड। (एक शख़्स होता है और एक वक्त होता है। जहां वो शख्स और वक़्त आकर मिले वहीं इतिहास बनता है।)”
प्रधानमंत्री बनने से पहले जनता पार्टी की सरकार में भी 1977-79 के बीच विदेश मंत्री के तौर पर वाजपेयी ने दोनों मुल्कों के बीच रिश्ते सुधारने की काफी कोशिश की थी । वाजपेयी के ही ज़माने में भारत के अमेरिका से रिश्ते मज़बूत हुए और चीन से रिश्तों में सुधार आया। नेहरु के बाद 21 साल में चीन पहुंचने वाले वाजपेयी पहले नेता रहे थे। नेहरु जैसे दिग्गज प्रधानमंत्री नौजवान अटल बिहारी को भारत के भावी प्रधानमंत्री के तौर पर देखते हैं । सबसे ताकतवर माने जाने वाली प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जब स्वर्ण मंदिर में आपरेशन ब्लू स्टार का फैसला करना होता है तो बनारस में बैठे वाजपेयी के लिए अलग से टेलीफोन लाईन लगवा कर बात करती हैं और राय लेती हैं, लेकिन वाजपेयी ही साफतौर पर कह सकते हैं कि स्वर्ण मंदिर में सेना भेजने का फ़ैसला खतरनाक होगा और बाद में उसका नतीजा मुल्क को झेलना भी पड़ा।
वाजपेयी जैसे नेता की विश्वसनीयता और भरोसा इस काबिल हो सकता है कि प्रधानमंत्री नरसिंह राव संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर के मसले पर बातचीत के लिए विपक्षी नेता वाजपेयी की अगुवाई में प्रतिनिधि मंडल भेजते हैं।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से बचपन से जुड़े वाजपेयी दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर जनता पार्टी से अलग हो जाते हैं, लेकिन फिर से जनसंघ को खड़ा करने के बजाय नई उदारवादी चेहरे वाली बीजेपी बनाते हैं जिसके झंडे में भगवा के साथ हरा रंग भी शामिल है। 1996 में पहली बार प्रधानमंत्री बनने के बावजूद विश्वास मत के लिए गलत तरीके से समर्थन जुटाने की कोशिश नहीं करते और ना ही 1999 में एक वोट से सरकार को गिरने से बचाने के लिए उड़ीसा के मुख्यमंत्री रहते हुए भी लोकसभा में वोट डालने से गिरधर गमांग को रोकते हैं। उऩकी समावेशी राजनीति का नतीजा ही था कि देश में वे पहली सबसे बड़े गठबंधन सरकार बनाते हैं। तमिलनाड जैसे राज्य की दो विरोधी पार्टियां डीएमके और एआईडीएमके उनके साथ सरकार में शामिल होने में संकोच नहीं करती। मायावती उनके साथ चलती हैं, ममता बनर्जी का कोई विरोध नहीं होता ।
वाजपेयी सरकार में ही तीन तीन छोटे राज्य उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ और झारखंड बिना किसी विवाद के बन जाते हैं। अपनी ही पार्टी के विरोध के बावजूद वो उदारीकरण की नीति को आगे बढ़ाते हैं। नया विनिवेश मंत्रालय खोलते हैं । संचार क्रांति लेकर आते हैं। विकास के लिए सबसे ज़रुरी सडकों का निर्माण तेज रफ्तार से करते हैं।
सामूहिक नेतृत्व में भरोसा और बहुमत के साथ चलने वाले नेता वाजपेयी ही हो सकते हैं जो ना चाहते हुए भी मंदिर आंदोलन और रथयात्रा को हरी झंडी दिखाते हैं, लेकिन अल्पसंख्यकों में अपना भरोसा बनाए रखते हैं । अपने पड़ोसी मुल्कों से बेहतर रिश्तों पर जोऱ देते हैं वाजपेयी, शायद यही वजह है कि उनकी अंतिम यात्रा में सार्क देशों के अलावा बहुत से मुल्कों के नुमांइदे शामिल होते हैं । विरोधी पार्टियों के मुख्यमंत्री और नेता उन्हें आखिरी सलाम देने पहुंचते हैं ।
कश्मीर पर उनकी नीति ही बड़ी वजह रही होगी कि राज्य के दो धुर विरोधी पार्टियों के नेता फ़ारुख अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती एक साथ नज़र आते हैं और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पन्द्रह अगस्त पर लाल किले की प्राचीर से कहते हैं कि सरकार कश्मीर मसले पर वाजपेयी जी के रास्ते पर चलेगी यानी इंसानियत,जम्हूरियत और कश्मीरियत।
60 साल तक आडवाणी और वाजपेयी के बिना किसी मनभेद के साथ रहने वाले दो धुरंधर राजनेताओं के रिश्ते पर आडवाणी कहते हैं कि वे मेरे प्रतिद्वन्दी कभी नहीं रहे , सिर्फ़ दोस्त रहे और मेरे लीडर भी यानी आज़ाद हिन्दुस्तान की जोड़ी नंबर वन। कवि ह्रदय वाजपेयी सिर्फ़ कागज़ पर शब्दों को नहीं उतारते , वे उनके जीवन में भी दिखाई देते हैं । ता ज़िंदगी फाइटर रहे वाजपेयी की कविता शायद खुद के लिए ही लिखी थी उन्होंनें –
हार नहीं मानूंगा,
रार नहीं ठानूंगा।
काल के कपाल पर,
लिखता-मिटाता हूं,
गीत नया गाता हूं।।
(विजय त्रिवेदी, वरिष्ठ पत्रकार)
(Vijaitrivedi007@gmail.com)