देश में पर्यावरण से संबंधित कानूनों की समीक्षा के लिए गठित उच्चस्तरीय समिति की सिफारिशों को संसद की विज्ञान-प्रौद्योगिकी और पर्यावरण तथा वन संबंधी स्थायी समिति ने सिरे से खारिज कर दिया है.
नरेंद्र मोदी सरकार ने पूर्व कैबिनेट सचिव टी.एस.आर. सुब्रमण्यम की अध्यक्षता में देश के छह प्रमुख पर्यावरण संबंधी कानूनों की समीक्षा और उसमें बदलाव की सिफारिश के लिए समिति गठित की थी. तीन महीने की पड़ताल के बाद समिति ने जो रिपोर्ट दी उसे लेकर कई तरह की आशंकाएं और विवाद खड़े हुए.
इस रिपोर्ट की छानबीन करते हुए स्थायी समिति ने इसे खारिज कर दिया. स्थायी समिति के अध्यक्ष अश्विनी कुमार ने राज्य सभा टीवी से बातचीत में कहा कि हम आर्थिक विकास के खिलाफ नही है क्योंकि ऐसा नही होगा तो रोजगार नही होगा और गरीबी दूर नहीं होगी. लेकिन हम चाहते है कि टिकाऊ विकास हो और हमारा पर्यावरण भी बचा रहे. इन दोनों के बीच समन्वय बनाए ऱखना बेशक एक चुनौती है. लेकिन पर्यावरण के कानूनों के बदलने से टिकाऊ विकास नहीं होगा. ऐसा करके हम साबित कर देंगे कि अपनी आने वाली पीढ़ी के प्रति हम एकदम गंभीर नहीं है.
तो क्या पर्यावरण संरक्षण के लिए बने कानून हमारी विकास परियोजनाओं के लिए रोड़ा है? क्या इन कानूनों के रहते देश में सामाजिक-आर्थिक विकास की रफ्तार को तेज नहीं किया जा सकता? ये सवाल एक अरसे से उठते रहे हैं. विकास की नयी बयार के बीच नदियों से लेकर ताल-पोखरे नष्ट होते रहे, जंगल कटते रहे और वन्य जीव समाप्त होते रहे. इस नाते संसद और संसद के बाहर कड़े कानून बनाने की मांग तेज हुई. लेकिन भारत में पर्यावरण संरक्षण से जुड़े कई कानून तब बने जब काफी नुकसान हो चुका था. या यूं कहें कि दुनिया के तमाम देशों में पर्यावरण को कानूनी संरक्षण मिलने के काफी समय बाद हम तब जगे जब पानी सिर के ऊपर आ गया था. दुनिया के दूसरे सबसे विशाल आबादी वाले देश के नागरिकों को बेहतर जीवन देने के लिए इन कड़े कानूनों की जरूरत थी. इसी नाते कुछ कड़े कानून 1970 से हाल के सालों के दौरान बनाए गए. इन कानूनों को बनाने के पहले संसद में व्यापक बहस हुई और राज्यों से संवाद भी. इन कानूनों को पुलिस और जेल कानून जैसा अंग्रेजी राज का कानून भी नही माना जा सकता है, जिनको बदलना अपरिहार्य हो.
लेकिन यह सच है कि जो कानून बनते है उनके क्रियान्वयन की एजेंसियां दूध की धुली नहीं है. वे कारपोरेट्स को भी परेशान करती हैं, आम नागरिकों को भी और निरीह आदिवासियों को भी. कोई नागरिक अपने पेड़ की डाल अपने उपयोग के लिए काट लेता है तो उसे जेल पहुंचाने या उत्पीड़ित करने के कम उदाहरण नहीं हैं. आदिवासी समुदाय को जंगल कानूनों के तहत कई जगह बहुत उत्पीड़ित किया गया.
कारपोरेट्स और कई राज्य सरकारें इस बात को लेकर अप्रसन्नता व्यक्त करती रहीं कि पर्यावरण कानूनों के चलते ही विकास की रफ्तार मंद है. रेल लाइन से लेकर सड़क और पंचायत घर बनाने से लेकर छोटी मोटी परियोजनाओं की मंजूरी में भी भारी देरी होती है. हालांकि इसके पीछे नौकरशाही का रवैया भी जिम्मेदार है. फिर भी इन मसलो के नाते उदारीकरण के बाद से ही माहौल बनाया जाने लगा.
देश में श्रम कानूनों को उदार बनाने, आर्थिक सुधारों और निजी क्षेत्र की भागीदारी या पीपीपी को हथियार बनाने की कोशिशें तेज हुईं तो पर्यावरण से जुड़े कठोर कानूनों को उदार बनाने की वकालत भी होने लगी. लेकिन सरकारें इससे बचती रही. क्योंकि हाल के सालों में देश में प्राकृतिक संसाधनों की तबाही ने जन प्रतिनिधियों, सिविल सोसायटी और पर्यावरणवादियों के साथ आम नागरिकों को काफी सजग और जागरूक बना दिया है. छोटी सी घटना बड़े विरोध को जन्म दे देती है.
लेकिन नरेंद्र मोदी सरकार ने सत्ता में आने के बाद पर्यावरण से जुड़े कानूनों में बदलाव की दिशा में कदम उठाया. इसी के तहत 29 अगस्त 2014 को पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने टीएसआर सुब्रमण्यम की अध्यक्षता वाली उच्चस्तरीय समिति गठित की. इसे मंत्रालय की प्रक्रियाओं, कानूनों और अधिनियमों की समीक्षा का जिम्मा सौंपा गया. समिति पर्यावरण (सुरक्षा) अधिनियम, 1986 , वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980, वन्यजीव (सुरक्षा) अधिनियम, 1972, जल (प्रदूषण निवारण और नियंत्रण ) अधिनियम, 1974, वायु (प्रदूषण निवारण और नियंत्रण ) अधिनियम, 1981 जैसे अधिनियमों की समीक्षा करना था.
उच्च स्तरीय समिति ने 18 नवंबर 2014 को अपनी रिपोर्ट केंद्रीय पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावडेकर को सौपी तो उन्होंने दावा किया था कि यह ऐतिहासिक रिपोर्ट विकासात्मक प्रतिबद्धताओं और पर्यावरण संरक्षण को संतुलित करने की प्रक्रियाओं को मजबूत करेगी. इसके लागू होने से परियोजनाओं की स्वीकृति और कार्यान्वयन में अनावश्यक देरी से बचते हुए पारदर्शिता सुनिश्चित की जा सकेगी. वहीं श्री सुब्रमण्यम का कहना था कि पर्यावरण को न्यूनतम नुकसान और विकासात्मक प्रतिबद्धताओं को संतुलित करने के प्रयासों को श्रेष्ठ बनाने के लिए समिति ने प्रणाली को मजबूत करने का काम किया है.
लेकिन समिति की यह रिपोर्ट जल्दी ही आलोचनाओं के घेरे में आ गयी. इसके विरोधियों और पर्यावरणवादियों ने आरोप लगाया कि नरेंद्र मोदी सरकार पर्यावरण के नियमों से ऐसा खतरनाक खिलवाड़ करने जा रही है, जिसका खामियाजा पूरे देश को उठाना पड़ेगा. कानूनों में बदलाव हुए तो पर्यावरण और वन संरक्षण के साथ ग्राम सभाओं और आदिवासियों के हितों को भारी नुकसान होगा. ये आशंकाए निराधार भी नहीं थीं. सिफारिशें जमीन पर उतार दी जाती तो कोयला खदानों के आवंटन के नियम, घने जंगलों में खनन से जुड़े कानूनों में बदलाव के साथ नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के अधिकारों में कमी आने के साथ कई प्रतिकूल असर दिखते.
आदिवासी बहुल इलाकों में कोई परियोजना लगाने के पहले जनसुनवाई जैसे अधिकार को समाप्त करने के मसले पर भी काफी तीखी प्रतिक्रिया हुई. और ग्रीन ट्रिब्यूनल के अधिकार कम करने की बात किसी के गले नहीं उतरी. इसी तरह किसी परियोजना के खिलाफ सीधे किसी ट्रिब्यूनल में शिकायत करने की जगह शिकायतकर्ता को पहले सरकार का दरवाजा खटखटाने की बाध्यता किए जाने की सिफारिश पर भी उंगली उठी.
समिति ने उद्योग जगत की ओर से लंबे समय से की जा रही उस मांग को स्वीकार लिया जिसमें कहा जा रहा था कि कंपनियां परियोजना के लिए सेल्फ सर्टिफिकेशन या स्वतः प्रमाणीकरण करें. समिति ने खनन के लिए प्रतिबंधित या ‘नो गो’ इलाकों को सीमित करने के साथ वृहद पर्यावरण कानून बनाने की वकालत की और सरकार से अस्पष्ट जंगल की परिभाषा तय करने को भी कहा. समिति की बेहतर प्रबंधन संबंधी कुछ सिफारिशें ऐसी हैं जिन पर किसी ने उंगली नहीं उठायी.
लेकिन इस मसले को लेकर इतने सवाल खड़े हुए थे कि अश्विनी कुमार की अध्यक्षता वाली संसद की विज्ञान-प्रौद्योगिकी और पर्यावरण तथा वन संबंधी स्थायी समिति ने इस मसले की पड़ताल को अपने एजेंडे में ले लिया था. कई दिग्गज विशेषज्ञों, सिविल सोसायटी और एनजीओ के प्रतिनधियों से विस्तार से वार्ता के साथ समिति ने पर्यावरण और वन मंत्रालय के प्रतिनिधियों को भी तलब किया. समिति की राय में छह पर्यावरण कानूनों की समीक्षा के लिए सरकार ने उच्च स्तरीय समिति को तीन महीने का समय दिया जो नाकाफी था. इस मसले पर जल्दबाजी की जरूरत नही थी और विशेषज्ञों के साथ सभी हितधारको से गहन संवाद किया जाना जरूरी था. साथ ही सरकार को भी विशेषज्ञों, एनजीओ और सिविल सोसायटी की आपत्तियों को संज्ञान में लेना चाहिए था. सरकार को इस मसले पर समिति बनानी ही थी तो व्यापक नियम प्रक्रिया के तहत विषय विशेषज्ञों को शामिल कर वाजिब समय देना था.
स्थायी संसदीय समिति के समक्ष इस मसले पर 43 संगठनों तथा उनके प्रतिनिधियों ने अपने विचार लिखित रूप में दिए. सेंटर फार साइंस एंड एनवायरमेंट, बांबे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी, वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड फार नेचर, टेरी, लीगल इनीसिएटिव फार फारेस्ट एंड इनवायरमेंट जैसे संगठनों के 11 विशेषज्ञों ने समिति के समक्ष पेश होकर अपना पक्ष रखा. समिति ने विशेषत्रों की आपत्तियों पर पर्यावरण और वन मंत्रालय से भी जवाब मांगा. मंत्रालय ने कमेटी के गठन को लेकर का जी रही आशंकाओं को गलत माना और कहा कि रिपोर्ट अभी मंत्रालय के विचाराधीन है. उनकी पड़ताल की जा रही है इस नाते आखिरी फैसला लेते समय ज्ञापन मे दिए अहम सुझावों को ध्यान में रखा जाएगा.
लेकिन स्थायी समिति की राय में उच्चस्तरीय समिति की रिपोर्ट जल्दबाजी में तैयार हुई. विशेषज्ञों या पर्यावरण के जानकारों से गहन मंत्रणा नहीं हुई. विशेषज्ञों तथा विभिन्न क्षेत्रों के प्रतिनिधियों ने भी माना कि जल्दबाजी में तैयार यह रिपोर्ट अगर मान ली जाती तो पयार्वरण, वन और वन्य जंतुओं तीनों पर बहुत बुरा असर होगा. समिति के समक्ष विशेषज्ञों ने कुछ खास आपत्तियां जतायीं जैसे :-
1- उच्चाधिकार प्राप्त समिति में एक भी ऐसा सदस्य नहीं था जो कि पर्यावरण और वन्य जीवन का जानकार हो.
2- उच्च स्तरीय समिति ने कुछ महानगरो में चुनिंदा समूहों से ही संवाद किया. और महज मंगलौर में हुई बैठक में ही पर्यावरणवादी और दूसरे हितधारक बुलाए गए.
3- उसे सुझाव रखने की सीमा 120 से 150 शब्दों तक सीमित रखी गयी, जिस नाते लोगों को अपनी बात कहने का मौका तक नही मिला.
4- सरकार ने इस मांग को भी नहीं स्वीकारा कि समिति की ड्राफ्ट रिपोर्ट जनता के बीच संवाद और सुझाव के लिए रखी जाये.
ऐसे बहुत से बुनियादी सवाल थे. यह भी कहा गया कि समिति की सिफारिशों से पर्यावरण की सुरक्षा में लगी रेगुलेटरी एजेंसियां कमजोर होंगी. और प्रशासन में एक अलग किस्म की अराजकता खड़ी होगी. अगर इस रिपोर्ट को लागू किया गया तो पर्यावरण कानूनों में नौकरशाही का नए सिरे से राज होगा और किसी सुधार की गुंजाइश नही बचेगी.
उच्च स्तरीय समिति पर्यावरण सुरक्षा के लिए जन भागीदारी और लोगों को जागरूक बनाने के मसले पर मौन रही. इसी तरह वनाधिकारी कानून 2006 और नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल एक्ट समिति की पड़ताल की परिधि के बाहर थे लेकिन समिति ने इस पर भी गौर किया.
लेकिन सबसे अधिक आपत्ति कुछ परियोजनाओं को विशेष तवज्जो या स्पेशल ट्रीटमेंट देने को लेकर उठायी गयी. इनमें सड़क, खनन, बिजली, रणनीतिक और राष्ट्रीय महत्व की परियोजनाएं शामिल हैं. स्थायी समिति का मानना था कि मसला रणनीतिक या कैसा भी हो, पर्यावरण के हितों की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए. सबके लिए एक ही प्रक्रिया हो और हर परियोजना के प्रभाव का आकलन होना ही चाहिए. किसी परियोजना को खास या फास्ट ट्रैक नहीं मानना चाहिए और हर मामले में जन सुनवाई और जनता की सहमति जरूरी हो.
स्थायी समिति की पड़ताल में वैश्विक से लेकर तमाम अहम मुद्दे उठे. कहा गया कि भारत दुनिया की 10 बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में एक है फिर भी हमारा चार फीसदी इलाका ही कानूनी रूप से संरक्षित क्षेत्र है. यह गलत धारणा है कि देश के बड़े हिस्से में विकास मे पर्यावरण कानूनों के नाते बाधा पैदा हो रही है. अगर 10-15 सालों में इनको बलिदान भी कर दिया जाये तो भी आंधी सी विकास गति हो जाएगी ये दिवास्वप्न से अधिक कुछ नही है. आज हमारी नदियां, चारागाह, झीले, रेगिस्तान और जंगल से लेकर जैव संपदा के खजाने को बचाने के लिए बहुत सावधानी की जरूरत है क्योंकि बहुत कुछ खतरे में पड़ा है.
विज्ञान-प्रौद्योगिकी और पर्यावरण तथा वन संबंधी स्थायी समिति के अध्यक्ष अश्विनी कुमार का कहना है कि हमारी समिति ने आम सहमति से रिपोर्ट दी है और कोई भी असहमति टिप्पणी तक नहीं है. क्योंकि यह मसला हमने दलगत राजनीति से परे हट कर लिया था और देश के पर्यावरण से जुडे अहम मसले पर निष्पक्षता से जांच की है. समिति के समक्ष जो भी लोग आए उन्होंने भी सिफारिशों को ठीक नहीं माना. इसी नाते सारे पक्षों की पड़ताल के बाद हमने सर्वसम्मति से सिफारिश की है कि इस रिपोर्ट को क्रियान्वित नहीं किया जाये. सुब्रमण्यम समिति की रिपोर्ट न विश्वसनीय है, न उसकी मान्यता है न ही इसका कोई औचित्य बनता है.
स्थायी समिति के अध्यक्ष स्वयं कानून मंत्री रहे हैं और यह मानते हैं कि कानूनो में बदलाव और संशोधन स्थायी प्रक्रिया है. समाज की उन्नति होती है देश आगे बढ़ता है तो औचित्यहीन कानूनों को बदला भी जाता है. लेकिन जहां तक देश के पर्यावरण का सवाल है तो उससे जुड़ा हमारा ढांचा आज भी एकदम प्रासंगिक है. ऐसे में इसको बदलने की होती है तो लोगों में आशंकाएं पैदा होना स्वाभाविक है. लोगों को लगता है कि कारपोरेट्स को मदद करने के लिए ऐसे कदम उठाए जा रहे हैं. पर्यावरण से जुडे कानूनों के बदलने से टिकाऊ विकास दिवास्वप्न से अधिक नहीं है.