भारतीय हिंदी पत्रकारिता इन दिनों संक्रमण काल का सामना कर रही है . अनेक विधाएँ धीरे धीरे दम तोड़ती नज़र आ रही हैं .सामाजिक नज़रिए से उनकी आवश्यकता है
मीडिया के संक्रमण काल का एक अजीब सा दौर है. न निगलते बनता है न उगलते. छोड़ते हैं तो ज़िन्दगी की रेस में पिछड़ने का ख़तरा और अंगीकार करो तो दिल, दिमाग
एक ज़माना था जब कहा जाता था कि बच्चों का रिश्ता अपने माता पिता से ज़्यादा दादा-दादी या नाना नानी से होता है. लेकिन अब तस्वीर बदल गई है. दादी या
भारतीय राजनीति में उन्नीस सौ अस्सी का साल विचार परक राजनीति के इंटेंसिव केयर यूनिट में जाने का साल है. छत्तीस बरस हो गए. तब से हर चुनाव में सबसे
पच्चीस बरस पहले की भारतीय पत्रकारिता. टाइम्स ऑफ इंडिया समूह की लोकप्रिय साहू अशोक जैन-रमेश जैन की जोड़ी हाशिए पर जा रही थी. नई पीढ़ी को मैनेजमेंट
उन दिनों सारे हिन्दुस्तान में खुशी की लहर ने लोगों के दिलों को भिगोना शुरू कर दिया था. आज़ादी की आहट सुनाई देने लगी थी. ये तय हो गया था कि दो चार
उन दिनों सारे हिन्दुस्तान में खुशी की लहर ने लोगों के दिलों को भिगोना शुरू कर दिया था. आज़ादी की आहट सुनाई देने लगी थी. ये तय हो गया था कि दो चार
इन दिनों राष्ट्रभाषा हिन्दी के बारे में अनेक स्तरों पर जानकार विलाप करते नज़र आते हैं. अगर उनकी बातों को गंभीरता से लिया जाए तो लगता है कि हिन्दी
सोलह-सत्रह बरस के भगत सिंह की भाषा पर आप क्या टिप्पणी करेंगे? इतनी सरल और कमाल के संप्रेषण वाली भाषा भगत सिंह ने बानवे-तिरानवे साल पहले लिखी थी.
जिस तरह सूरज की किरणों की कोई सरहद नहीं होती, बहते हुए झरने का कोई मज़हब नहीं होता और ठंडी हवाओं की कोई भाषा नहीं होती, वैसे ही साहिर के गीत और
नीरज जो आज सोचते हैं, वो दुनियाभर से ग़ुम होती जा रही इंसानियत और उससे होने वाले खतरों पर है. क़रीब-क़रीब 90 साल का हो रहा एक इंसान आज भी कविता के
उस दिन पानी बरस रहा था. मैं अपनी कैमरा टीम के साथ पुणे में था और आरके लक्ष्मण से मिलने जा रहा था. रोमांचित था. बचपन से जिसका नाम सुनता रहा, उससे